कि लील लिए तुमने
फिर कितने हरभजन, सफदर और पाष
” जिन्हें जीने की बड़ी चाह थी
कि जो गले-गले तक डूब कर
जिन्दगी को जीना चाहते थे ”
बचे रहे हम
मरे नहीं आकाल-मौत
भरी रहीं बैलों की नादें
परोसा जाता रहा सानी-पानी
चरते रहे गदहे
पसीनों की फसलें
उठता रहा छप्परों पर जहरीला धुँआ
हर सुबह-षाम
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