Thursday, 4 June 2015

- हिरना, समझ बूझि वन चरना -

घने काले बादल, दिन भर एक साँवला अंधेरा, धुंध, वर्शा में धुलते हरे पहाड़। दक्षिणी हवा और घनघोर कोहरे में थमी-धुंधलाती बरैल पहाडि़यों में जातिंग जनजातियों का एक छोटा-सा गाँव-जातिंगा। जाने कितनी सदी पुराना, जंगल में जमा हुआ जीवन, वैसाखी पर टिका हुआ समय, सदी जैसे पाँव कटा कर बैठी थी।
दक्षिण-पष्चिम की बरैल पहाडि़यों से घिरा हुआ गाँव, एक गलियारे में बदल गया था। जैसे एक मोटे-लम्बे पाइप से गुजर कर उस गाँव में जाना होता था। इसी गलियारे से बादल और धुन्द इस गाँव मे प्रवेष करते, दिन को रात बना जाते थे। यहाँ हर वर्श होती प्राकृतिक दुर्घटना को देखने के लिए राजन पिल्लै जब उमसाव से निकला, झमाझम मेघ बरस रहा था। सात-आठ बुलेट एज-डी. पर सोलह-अठ्ठारह लोग, न जाने कितनी नदियाँ अंगडाती-उछलती दौड़ रहीं थीं। गाडि़याँ गुजरती, उड़ते पानी के घने छींटों में, षीषों के महीन चूर्ण से बने सैकड़ों झरनों के उमगने का दृष्य उभर आता।

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