Dedicated to Babuji
Monday, 14 December 2015
Thursday, 4 June 2015
- हिरना, समझ बूझि वन चरना -
घने काले बादल, दिन भर एक साँवला अंधेरा, धुंध, वर्शा में धुलते हरे पहाड़। दक्षिणी हवा और घनघोर कोहरे में थमी-धुंधलाती बरैल पहाडि़यों में जातिंग जनजातियों का एक छोटा-सा गाँव-जातिंगा। जाने कितनी सदी पुराना, जंगल में जमा हुआ जीवन, वैसाखी पर टिका हुआ समय, सदी जैसे पाँव कटा कर बैठी थी।
दक्षिण-पष्चिम की बरैल पहाडि़यों से घिरा हुआ गाँव, एक गलियारे में बदल गया था। जैसे एक मोटे-लम्बे पाइप से गुजर कर उस गाँव में जाना होता था। इसी गलियारे से बादल और धुन्द इस गाँव मे प्रवेष करते, दिन को रात बना जाते थे। यहाँ हर वर्श होती प्राकृतिक दुर्घटना को देखने के लिए राजन पिल्लै जब उमसाव से निकला, झमाझम मेघ बरस रहा था। सात-आठ बुलेट एज-डी. पर सोलह-अठ्ठारह लोग, न जाने कितनी नदियाँ अंगडाती-उछलती दौड़ रहीं थीं। गाडि़याँ गुजरती, उड़ते पानी के घने छींटों में, षीषों के महीन चूर्ण से बने सैकड़ों झरनों के उमगने का दृष्य उभर आता।
दक्षिण-पष्चिम की बरैल पहाडि़यों से घिरा हुआ गाँव, एक गलियारे में बदल गया था। जैसे एक मोटे-लम्बे पाइप से गुजर कर उस गाँव में जाना होता था। इसी गलियारे से बादल और धुन्द इस गाँव मे प्रवेष करते, दिन को रात बना जाते थे। यहाँ हर वर्श होती प्राकृतिक दुर्घटना को देखने के लिए राजन पिल्लै जब उमसाव से निकला, झमाझम मेघ बरस रहा था। सात-आठ बुलेट एज-डी. पर सोलह-अठ्ठारह लोग, न जाने कितनी नदियाँ अंगडाती-उछलती दौड़ रहीं थीं। गाडि़याँ गुजरती, उड़ते पानी के घने छींटों में, षीषों के महीन चूर्ण से बने सैकड़ों झरनों के उमगने का दृष्य उभर आता।
एक और किस्त जिन्दगी
जेठ की लहास भरी रातए तेज पछिया से उडी़ धूल और दुर्गन्ध से झंकोरी जाती रही। प्रेमदा ने रात की तमाम बेचैन गंधए दादी.सास की पुरानी पलंग परए करवट बदल कर वर्दास्त किया था। यूं तो असंख्य उलझनें उसकी नींद में छाता की कमानी.सी तनी ही रहती थीए तिस पर जेठ द्वारा उसका खेत हड़प लेने का लोभए आज उसे भीतर तक कँपा गया था। सच ही तो कहते हैं लोगए दुश्टों की नीति . पट्टिदार और अरहर की दाल जितना गले अच्छाए नहीं तो जेठ के इस तरह तंग करने का कोई कारण नहीं बनता। वह भी तबए जब पति की मृत्यु के घाव पर अभी पपड़ी भी न पड़ी है।
दुःख
आप मरे हुए लोग हैं
या अधूरे आदमी
क्योंकि नहीं जानते दुःख।
आपके पास न होंगे .
पर बहुत है दुःख दुनिया में
हर कोंपल के पहले
पेड़ की जड़ों में बजता है दुःख
टूटते हुए पत्तों का।
वह जागता है .
सूखती नदी की झुर्रियों में
नहीं देख सकते घ्
दोहरी दोपहर
दोपहर लौटती है
अंगुली थामे स्कूल से दुकेली
थमा जाती है चाचा चौधरी
विक्रम.बैताल के किस्से
किसलयी हाथों को रेषमी कलम
फाइव स्टार टॉफी
रंगीन खिलौने.बसए ट्रेनए वायुयानए बंदूकें
खौलते मौसम से अजाना
परियों के पंख पर
चाँदनी के देष घूमता है ऐष्वर्य !
दीपावली
दीप ?
तुलसी चौड़ा पर
अर्ध्य-औधा पात्र उठाते
प्रतीक्षिता की दो खुली अँाखें
हरी पत्तियों पर चमकती
ओस बूँद
जमीन पर सितारो का उतरना
नव धनाढ़्या के अगराए वैभव की आग
हथियार के आकार में ढ़ले खिलौने
बारूद का खतरनाक खेल
द्रौपदी का दांव पर चढ़ना
नषे की बेहोष रात
उल्लू का बोलना
लक्ष्मी आज फिर पूछेगी -
कौन जाग रहा है
यहाँ कौन जाग रहा है ?
दिवा-स्वप्न
बूढे़ दरख्त ने देखा
दिवा-स्वप्न
सूखी षाखें भर गईं
कलोंजर और किसलयों से
नख षिखान्त
दिन भर फूला रहा
चूडि़यो में सपने जीती
1)
नहीं व्याही जाती अकेले मर्द से
यहां पूरे परिवार से
व्याही जाती हैं औरते,
कितनी भी तेज
कितनी भी सुंदर
अक्सर - एक समान होती जाती हैं औरते
“ बंद दरवाजों पर दस्तक
“ - की कविताओं के बारे में कुछ नहीं, क्योंकि जो कहना था वह अपने समय के बेहतर
षिल्प में 1984 से 2000 तक लिखी गई, इन कुछ कविताओं के रूप में भी सामने है। मगर
कुछ वैसे लोगो का ऋृण स्वीकार करना अनिवार्य है, जिन्होंने अनाम-गोत्र
युवतर कविता को अप्रत्याषित स्थान देकर प्रकाषित किया, और मेरे आत्मविष्वास
को बढ़ाया। पहली कविता सप्ताहिक हिन्दुस्तान ने छापी। इसके उत्प्रेरक थे - कुमार उत्तम,
जिनकी आस्था ने कविता
में मेरा प्रकाषन प्रारंभ कराया। आचार्य जानकी बल्लभ षास्त्री ने इन कविताओं को देखकर
1991 में लिखा - “ रामेष्वर द्विवेदी नए संभावनाषील कवियों में बहुचर्चित और लोकप्रिय
कवि हैं। उनकी भाशा में जो ओज और ताजगी है वह उनकी प्राणवत्ता और आन्तरिक उर्जा की
ही प्रतिच्छवि है। जीवन को गहराइयों में उतर कर विविध कोणों से देखने वाली दृश्टि है उनके पास जिस कारण उनकी सृश्टि में अनायास
का सहज प्रवाह है।
दादी की कहानी में -केतकी-
गर्मी की छुट्टी की
घोषणा के बाद पवन सिन्हा के परिवार के लिए वह एक हड़बड़ायी रात थी। बेटी वर्चश्वी के
पाँव ने पारा पहन लिया था। गांव, घर जाना है। पके आम की महक चैत-बैशाख की चाँदनी में फूले अरहर
और बची ईख के खेतों से बोलते सियार की आवाज-महानगरीय जीवन के एकदम उलट सबकुछ। न कहीं
संगमरमर का शहर-मौजैक किए-कराए मन-न एक खास कटाव-तराश में ढला-आदमी । उन्मुक्त हँसी
और पारदर्शी व्यवहार। गाँव का जीवन एक रसता तोड़ता है। हरी सब्जियाँ, गुड गन्ने का रस,
पके आम, दूध, दही न जाने कितनी चीजों
के साथ लोग मिलने आते हैं। उसकी मम्मी भी सस्ते स्वेटर कम्बल, कपड़े और ऐसी कितनी
चीजें लेकर जाती है। -ताली आखिर दोनों हाथ से ही तो बजती है। इसी आपसी लेन-देन का नाम
तो है दुनियादारी। आज उसे नींद न आएगी -टेªन की सीटी से पूरी रात गूंजती रहेगी। शैलाभ
शिथिल हो गया था। कहाँ से आएगा टेलीविजन? कहाँ खेलेगा वह वीडियों गेम? कैसे देख सकेगा मैच
और क्या होगा। दोस्तों के साथ उसकी मटरगश्ती का? सो वह चुप और उदास।
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बीते बर्श! बधाई
कि लील लिए तुमने
फिर कितने हरभजन, सफदर और पाष
” जिन्हें जीने की बड़ी चाह थी
कि जो गले-गले तक डूब कर
जिन्दगी को जीना चाहते थे ”
बचे रहे हम
मरे नहीं आकाल-मौत
भरी रहीं बैलों की नादें
परोसा जाता रहा सानी-पानी
चरते रहे गदहे
पसीनों की फसलें
उठता रहा छप्परों पर जहरीला धुँआ
हर सुबह-षाम
बीसवीं सदी की डबडबायी आँख
1)
बेटिकन के पोप की प्रिय पुत्री भर नहीं !
बीसवीं सदी की डबडबायी आँख
राहत-सी
उपेक्षितों की मँा
कभी नहीं मरती
होती है अंधेरे में धु्रव तारा
स्मित अधरो के प्रभा मंडल तक
उतरती हुई सफेद कबूतरों के झुंड के झुंड
पसीजती पलकों की कोरों पर ही
कम कर जाती है
करोड़ों षरणार्थी षिविरों की करुणा
लियोनार्डो-दा-विंचि की कल्पना को
आकार देती है
बेंजामिन मोलाइस के लिए
बन्धु !
तुम्हारा जन्म सार्थक
समय की बहती नदी में
द्वीप-सी उभरी तारीख
तुम्हारी पहचान।
बर्बरता के नकार का नाम
बेंजामिन।
जुल्म के सीने पर
संघर्श-मूल्यों के निषान का नाम
बेंजामिन।
बसंत और बारिष
1)
सारी दुनिया में चलती थी उजाड़ आँधी
उड़ती थी रेत
उठता था बवंडर
माँ की आखों में
बादल उतर आते थे
काली घटाओं में चमकती थी बिजली
2)
पतझड़ में जब भी टूटते थे पीले पत्ते
फूल, माँ से मांगते थे मुस्कुराना
नंगी डालियों पर कोंपल
बज्जड़ तनों पर किसलय-सी
फूट पड़ती थी माँ।
बंजर सदी के अंत में
जब सिनेमा से चालित हो समाज
टी.वी. से चिपके हों
चेहरे और आँख
चकोड़ा चैनलों से उतरकर
हर घर-आंगन में पसर रहे हों
खूबसूरत खतरे
जब पुराने हो गए हो
संस्कार और षास्त्र
रद्दी की जगह जला लिए गए हो
षील और सिद्धांत
बच्चा
बच्चों !
तुम नहीं हो सिर्फ पुत्र-पुत्री
पौत्र-भाई-बहन जैसा एक रिष्ता
किसी व्यक्ति के लिए
एक सपना हो तुम
माँ की ऑखों में
कच्चे दूध की हर घूंट के साथ
समाज के लिए आकार लेते हुए
सार्थक सपना हो
तुम मुस्कुराते हो तो
दस्तक देता है बसंत
आकाष हमें भी चढ़ना है
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आकाष हमें भी चढ़ना है
सिर्फ पढ़े हैं
चांदनी की सफेद चादर पर
कुमकुम के कुंआरे गीत
दूर क्षितिज की ओर
रूपहले पनघट पर
पनिहारिनों की धुंधली परछाइयां
मेंहदी के जंगल में
पायल की रुनझुन
इंन्द्रधनुश का गुनगुन स्वर
गंधित पुरवाई में
मौंसम का गाया कोई फागुनी राग
मगर कभी भी
” न बोलते हुए फूलों को सुना है
न झमकती हुई ध्वनियों को देखा है ”
देखे हैं गहरी धंसी हुई
कांच की गोलियों-सी
बाइस बर्शीय आँखे
बेइमानो से काट ली जाने वाली
अधपकी फसलें
बारह बर्शीय बुजूर्गों का
पसीनें में महकता व्यापार
या फूलती साँस के सामान्य होने पर
याद आने वाला प्यार
आयेगी कविता
कविता नही आती महीनों
तो मतलब नहीं कि
लापरवाह हो रहे है सपनें
मतलब यह कि आकाष
खाली है परिन्दों से इन दिनों।
कविता आयेगी, - जब उजड़ जाने पर
ढ़ीठ होकर चिडि़याँ
घर के किसी साफ-षफ्फाक कोने में
फिर बनायेगी घोंसला
जब कोई मरेगा कहीं
षब्दहीन अकेले
---Continue
आस्था
पौेधे पत्थर हो जाऐंगे
सूरज को भी आने लगेगी नींद
जात बदल जाएगी मेंहदी की
गुलाब में बच जाऐगे सिर्फ काँटे
भाग कर छिप जाऐगे लोग घरों में
जब भी कोई अजनबी
किसी चौक पर अकबका कर पूछेगा
खोया हुआ किसी का पता
दोस्त !
-----continues
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