Anubhav Ki Nadi Me Khanavadosh Din
अनुभव की नदी में खानाबदोश दिन
Tuesday, 4 February 2025
Wednesday, 1 November 2023
झूठ बोलूंगा इस बार: रामेश्वर द्विवेदी
झूठ बोलूंगा इस बार
■ रामेश्वर द्विवेदी
कैसा है मेरा घर?
पड़ोसी!
तुम्हारी तबीयत कैसी है?
तीस वर्ष पैदल चलती
कल रात वह औरत
मेरे सपने में आयी थी
वह वैसी ही थी जैसी दिखती थी पहले
पति के बारे में नहीं पूछा
कि क्या वह अब भी पीता है शराब?
कि अब किस पर फेंकता है थालियाँ
खाने में कभी नमक भूल जाने या
ज़रा-सी मिर्ची के चढ़ जाने के बाद
ज़मींदोज़ होती कटोरियों के बजने के बारे में
वह नहीं थी फिक्रमंद
उसने दुआएं दी और विरक्त दिखी
और कुछ भी नहीं पूछा
कि लोग राई भर भी अच्छे हुए हैं
कि तिल-तिल कर बढ़ी है बुराईयाँ
वह चुप रही
उसके पास शुभकामनाओं की थैली
उद्बोधनों से भरी अंजुली के अलावा
चिंता की रेखाओं का जाल था
वह खाली थी।
मैंने पूछा-
अपनी कहो!
वह चुप रही
उम्मीद लेकर आई थी
कुछ भी नहीं कहा
अपने सपनों के बारे में
मैंने यूँ ही कहा
सब वैसा ही है
जैसा छोड़ा था तुमने
तेरा घर, मोहल्ला, शहर
बदल रहे हैं लोग
बदल रहा है देश
मिल रहा है सबका साथ
हो रहा है सबका विकास
पामाल है गढ़ा हुआ इतिहास
अब जो कभी आओगी
तो बहुत भटकोगी!
मंदिर के जाल
नामों के जंजाल में
कहीं नहीं खोज पाओगी अपना इष्ट
मैंने और एक सच कहा-
अनव्याही है तेरी जवान बिटिया
मैंने एक और सच कहा-
मैं डरता हूँ कि हो ना जाए वह
एक लावारिस दीवार
एक अधबने मकान का खंडहर
गैरमजरूआ जमीन का कोई टुकड़ा
या, बिन किये अपराध की अफवाह
उसके चेहरे पर
घना होता गया
चिंताओं का जाल
वह फूट-फूट कर रोयी
रोती रही
घुटने पर हाथ रखती उठी
खड़ी होती लड़खड़ा गयी
क्षणभर में
झुर्रियों से भर गया था चेहरा
वह खाँसती हुई रोती रही
रोती हुई खाँसती रही
उसका रोना
सरल रेखा की तरह नहीं था सपाट
उसमें हिचकी की असंख्य गाँठे थीं
मेरे लिए सच बोलने के मलाल का मौसम था
उसके लिए
अपने जीवित न रह पाने पर
अफसोसज़दा होती
भींगती हुई कोई ऋतु!
मैं डर गया
सौ मौत मरती थी
हज़ार मौत फिर मर जाएगी
मेरे सपने में
दबे कदम धरती
कभी भी नहीं आएगी।
हो सकता है
वह मन को न मना पाए
और फिर जो कभी
बिना कुंडी खटखटाए
बिना सांकल खुलवाए
मेरे सपने में आए
पांवपोछ पर रखकर अपनी उम्मीदें
कोई सवाल बुदबुदाए
तो मैं एक झूठ और जोड़ दूंगा
अपने पुराने सचों की फेहरिस्त में
तेरी बेटी सात आसमान तक उड़ती है
इंद्रधनुष का पंख पहनकर
उसके नखों से रंग झड़ते हैं
एड़ियों से झांकता है गुलाल
और वह पड़ोसन लाजवाब हो जाएगी।
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Monday, 26 June 2023
अकार : https://notnul.com/Pages/Book-Details.aspx?Shortcode=CLRWSZ8Q कहानी: कैसे __रामेश्वर द्विवेदी जीत नाम था उसका। पिता पंजाबी के प्राध्यापक रहे थे। शुचिता उसे विरासत में मिली थी। अब याद नहीं कि उसने पूरे नाम में 'जी' के पहले 'सर्व' या 'दल' या 'दिल' था परंतु मुझे उसका व्यक्तित्व पूरा, पर नाम आधा ही पसंद था । जब फोन मे पहली बार मे मैंने उसे जीत पुकारा वह चौंक गया था -
अकार : https://notnul.com/Pages/Book-Details.aspx?Shortcode=CLRWSZ8Q
कहानी: कैसे
__रामेश्वर द्विवेदी
जीत नाम था उसका। पिता पंजाबी के प्राध्यापक रहे थे। शुचिता उसे विरासत में मिली थी। अब याद नहीं कि उसने पूरे नाम में 'जी' के पहले 'सर्व' या 'दल' या 'दिल' था परंतु मुझे उसका व्यक्तित्व पूरा, पर नाम आधा ही पसंद था । जब फोन मे पहली बार मे मैंने उसे जीत पुकारा वह चौंक गया था -
"सर जी ! मेरे पाजी से बात हुई क्या ? नंबर दिया था न मैंने, वे मुझे जीत ही बुलाते हैं। "
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बाकी के लिए : अकार : https://notnul.com/Pages/Book-Details.aspx?Shortcode=CLRWSZ8Q
Monday, 14 December 2015
Thursday, 4 June 2015
- हिरना, समझ बूझि वन चरना -
घने काले बादल, दिन भर एक साँवला अंधेरा, धुंध, वर्शा में धुलते हरे पहाड़। दक्षिणी हवा और घनघोर कोहरे में थमी-धुंधलाती बरैल पहाडि़यों में जातिंग जनजातियों का एक छोटा-सा गाँव-जातिंगा। जाने कितनी सदी पुराना, जंगल में जमा हुआ जीवन, वैसाखी पर टिका हुआ समय, सदी जैसे पाँव कटा कर बैठी थी।
दक्षिण-पष्चिम की बरैल पहाडि़यों से घिरा हुआ गाँव, एक गलियारे में बदल गया था। जैसे एक मोटे-लम्बे पाइप से गुजर कर उस गाँव में जाना होता था। इसी गलियारे से बादल और धुन्द इस गाँव मे प्रवेष करते, दिन को रात बना जाते थे। यहाँ हर वर्श होती प्राकृतिक दुर्घटना को देखने के लिए राजन पिल्लै जब उमसाव से निकला, झमाझम मेघ बरस रहा था। सात-आठ बुलेट एज-डी. पर सोलह-अठ्ठारह लोग, न जाने कितनी नदियाँ अंगडाती-उछलती दौड़ रहीं थीं। गाडि़याँ गुजरती, उड़ते पानी के घने छींटों में, षीषों के महीन चूर्ण से बने सैकड़ों झरनों के उमगने का दृष्य उभर आता।
दक्षिण-पष्चिम की बरैल पहाडि़यों से घिरा हुआ गाँव, एक गलियारे में बदल गया था। जैसे एक मोटे-लम्बे पाइप से गुजर कर उस गाँव में जाना होता था। इसी गलियारे से बादल और धुन्द इस गाँव मे प्रवेष करते, दिन को रात बना जाते थे। यहाँ हर वर्श होती प्राकृतिक दुर्घटना को देखने के लिए राजन पिल्लै जब उमसाव से निकला, झमाझम मेघ बरस रहा था। सात-आठ बुलेट एज-डी. पर सोलह-अठ्ठारह लोग, न जाने कितनी नदियाँ अंगडाती-उछलती दौड़ रहीं थीं। गाडि़याँ गुजरती, उड़ते पानी के घने छींटों में, षीषों के महीन चूर्ण से बने सैकड़ों झरनों के उमगने का दृष्य उभर आता।
एक और किस्त जिन्दगी
जेठ की लहास भरी रातए तेज पछिया से उडी़ धूल और दुर्गन्ध से झंकोरी जाती रही। प्रेमदा ने रात की तमाम बेचैन गंधए दादी.सास की पुरानी पलंग परए करवट बदल कर वर्दास्त किया था। यूं तो असंख्य उलझनें उसकी नींद में छाता की कमानी.सी तनी ही रहती थीए तिस पर जेठ द्वारा उसका खेत हड़प लेने का लोभए आज उसे भीतर तक कँपा गया था। सच ही तो कहते हैं लोगए दुश्टों की नीति . पट्टिदार और अरहर की दाल जितना गले अच्छाए नहीं तो जेठ के इस तरह तंग करने का कोई कारण नहीं बनता। वह भी तबए जब पति की मृत्यु के घाव पर अभी पपड़ी भी न पड़ी है।
दुःख
आप मरे हुए लोग हैं
या अधूरे आदमी
क्योंकि नहीं जानते दुःख।
आपके पास न होंगे .
पर बहुत है दुःख दुनिया में
हर कोंपल के पहले
पेड़ की जड़ों में बजता है दुःख
टूटते हुए पत्तों का।
वह जागता है .
सूखती नदी की झुर्रियों में
नहीं देख सकते घ्
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