Saturday 11 February 2012

एक परिचयः मेरे बाद (पंडित श्री योगेन्द्र द्विवेदी) (1923 - 28 फरबरी, 2011))

भूमि पर मुझको लिटाना
जब कभी तो इस तरह कि
पीठ पर आकाश……..
मेरे होंठ मिट्टी से जुडे हों
लोग पूछें तो बता देना
सिर्फ देना जानता था
बसेगी वहीं मूर्ति इस जमीन में
हाथ दो पारस थे जिसके
मिट्टी को कंचन बनाना चाहता था
जन्म से ही धर्म जीता था मनुज का
लोग पूछें तो बता देना
किसी से कुछ माँगा
लोग पूछें तो बता देना यहाँ पर
नींद में घायल सिपाही सो गया है
जो उडाने का बडा शौकीन था उजले कबूतर
और झडता था महज आशीष मंगल
लौह तलहथियाँ से जिनके
सदानीरा नदी कोई बह रही थी
नाडियों में स्वयं के भीतर नसों में
नाचती थी वर्ष नब्बे तक
कुछ पसीने कुछ क्षमा
कुछ अनसुनेपन की नदी
के साथ बहता था नशा बस जिन्दगी का
राग छलछल नेह छलछल
छोह और निर्मोह छलछल
अब नहीं है वह नदी
सरस्वती कोई हुई है फिर अलोपित
या समंदर हो गई है बूंद कोई
अब बसा है एक भोला सा
वही विज्ञानी यहाँ पर जिंदगी का
वाड्ग्मय संस्कृत का पीआ था जिसने
लोग आगत जानने आते रहे थे पास
साख ना तोडी कभी ना झूठ बोला
कबीरा चादर का कभी ना साथ छोडा
ऐसे कई असंभव साधता था जिन्दगी भर 
चाँद छूने की कला भायी जिसको
एक सहारा रेत में बरगद खडा था
चुप अकेला पँक्षियों की ओढकर चादर हरा था
हर महीना वह भरा था
इक घडे सा अर्घ्य था
अभिषेक का जीवन सफर में
रामनामी को पिरो रूद्राक्ष में
पदरज उढाए मुठ्ठियों में
पत्थरों में प्राण का जादू जगाना चाहता था।
हर उपेक्षित आदमी का वह सगा था
लडकियों कि जिंदगी सजती जहाँ थी
उस जमीं पर वह अकेला ही सभा था उम्र भर
आगन्तुकों को बाटताँ था थाल अपनी
हो गया आकाश निस्सीम आयतन है
बस कोई बहती नदी थी
जिसने गोमुख को देखा
पहचाना पूर्वज पर्वतों को
सारे गोमुख गंगा पर्वतों को
है हमारा नमन शत् शत्
नमन शत् शत्
अनथकी इस नदी के राग को
गा रही है कई घरों में आग
उस आदमी का बह रहा है कई घरों में राग
उस आदमी का जिस तरह बहती नदी है जेठ में।
 
-----------    विनोद (डा.रामेशवर  द्विवेदी)

1 comment:

  1. a nice poem for a nice mannnnn and by a nice mannnn.............................................................. i like this poem very much

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