झूठ बोलूंगा इस बार
■ रामेश्वर द्विवेदी
कैसा है मेरा घर?
पड़ोसी!
तुम्हारी तबीयत कैसी है?
तीस वर्ष पैदल चलती
कल रात वह औरत
मेरे सपने में आयी थी
वह वैसी ही थी जैसी दिखती थी पहले
पति के बारे में नहीं पूछा
कि क्या वह अब भी पीता है शराब?
कि अब किस पर फेंकता है थालियाँ
खाने में कभी नमक भूल जाने या
ज़रा-सी मिर्ची के चढ़ जाने के बाद
ज़मींदोज़ होती कटोरियों के बजने के बारे में
वह नहीं थी फिक्रमंद
उसने दुआएं दी और विरक्त दिखी
और कुछ भी नहीं पूछा
कि लोग राई भर भी अच्छे हुए हैं
कि तिल-तिल कर बढ़ी है बुराईयाँ
वह चुप रही
उसके पास शुभकामनाओं की थैली
उद्बोधनों से भरी अंजुली के अलावा
चिंता की रेखाओं का जाल था
वह खाली थी।
मैंने पूछा-
अपनी कहो!
वह चुप रही
उम्मीद लेकर आई थी
कुछ भी नहीं कहा
अपने सपनों के बारे में
मैंने यूँ ही कहा
सब वैसा ही है
जैसा छोड़ा था तुमने
तेरा घर, मोहल्ला, शहर
बदल रहे हैं लोग
बदल रहा है देश
मिल रहा है सबका साथ
हो रहा है सबका विकास
पामाल है गढ़ा हुआ इतिहास
अब जो कभी आओगी
तो बहुत भटकोगी!
मंदिर के जाल
नामों के जंजाल में
कहीं नहीं खोज पाओगी अपना इष्ट
मैंने और एक सच कहा-
अनव्याही है तेरी जवान बिटिया
मैंने एक और सच कहा-
मैं डरता हूँ कि हो ना जाए वह
एक लावारिस दीवार
एक अधबने मकान का खंडहर
गैरमजरूआ जमीन का कोई टुकड़ा
या, बिन किये अपराध की अफवाह
उसके चेहरे पर
घना होता गया
चिंताओं का जाल
वह फूट-फूट कर रोयी
रोती रही
घुटने पर हाथ रखती उठी
खड़ी होती लड़खड़ा गयी
क्षणभर में
झुर्रियों से भर गया था चेहरा
वह खाँसती हुई रोती रही
रोती हुई खाँसती रही
उसका रोना
सरल रेखा की तरह नहीं था सपाट
उसमें हिचकी की असंख्य गाँठे थीं
मेरे लिए सच बोलने के मलाल का मौसम था
उसके लिए
अपने जीवित न रह पाने पर
अफसोसज़दा होती
भींगती हुई कोई ऋतु!
मैं डर गया
सौ मौत मरती थी
हज़ार मौत फिर मर जाएगी
मेरे सपने में
दबे कदम धरती
कभी भी नहीं आएगी।
हो सकता है
वह मन को न मना पाए
और फिर जो कभी
बिना कुंडी खटखटाए
बिना सांकल खुलवाए
मेरे सपने में आए
पांवपोछ पर रखकर अपनी उम्मीदें
कोई सवाल बुदबुदाए
तो मैं एक झूठ और जोड़ दूंगा
अपने पुराने सचों की फेहरिस्त में
तेरी बेटी सात आसमान तक उड़ती है
इंद्रधनुष का पंख पहनकर
उसके नखों से रंग झड़ते हैं
एड़ियों से झांकता है गुलाल
और वह पड़ोसन लाजवाब हो जाएगी।
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